श्री रुद्राष्टकम् स्तोत्र

श्री रुद्राष्टकम् स्तोत्र

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द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् (Dwadash Jyotirlinga Stotram)

द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों को संबोधित एक स्रोत है। इस स्तोत्र का प्रतिदिन जाप करने से बारह ज्योतिर्लिंगों के दर्शन करने के समान फल की प्राप्ति होती है। भगवान शिव जी को समर्पित यह स्त्रोत बहुत ही फलदायी होता है। जो भी भक्त इस स्त्रोत का नियमित पाठ करता है उस पर शिव जी की कृपा बनी रहती है। पुराणों के अनुसार, भगवान शिव जिस जिस स्थान पर प्रकट हुए उन स्थानों पर उनकी पूजा ज्योतिर्लिंगों के रूप में होती है। शिवपुराण के मुताबिक, ज्योति के रूप में भगवान शिव स्वयं यहां विराजित रहते हैं।

द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् का महत्व (Importance of Dwadash Jyotirlinga Stotram)

श्री आदि शंकराचार्य द्वारा रचित द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्र का जो भी व्यक्ति सुबह शाम पाठ करता है। उसके सात जन्मों के पाप ख़त्म हो जाते है। वह व्यक्ति जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्ति पा लेता है। उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जो भी व्यक्ति द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्रम् का पाठ करता है उसे कभी भी मृत्यु का भय नहीं रहता। साथ ही उस व्यक्ति को अपने जीवन में धन धान्य की प्राप्ति होती है।

द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् पढ़ने के फायदे (Benefits of reading Dwadash Jyotirlinga Stotram)

  • सोमवार का दिन शिव जी को समर्पित होता है। इस दिन भगवान भोलेनाथ के द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् का पाठ करने से शिव जी प्रसन्न होते है। और वह अपने भक्तों की सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करते है।
  • इस स्त्रोत का पाठ करने से जातक के सभी कष्टों का निवारण भगवान भोलेनाथ करते हैं।
  • सावन के महीने में जो भी व्यक्ति भगवान के इस स्त्रोत का पाठ करता है। उसके सभी बिगड़े काम बनने लग जाते है।
  • नियमित रूप से इस स्त्रोत का पाठ करने से जीवन में सुख समृद्धि आती है। साधक को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।

द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् का हिंदी अर्थ (Hindi meaning of Dwadash Jyotirlinga Stotram)

द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्रम्

सौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम् । भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये ॥1

अर्थात - जो अपनी भक्ति प्रदान करने के लिये अत्यंत रमणीय तथा निर्मल सौराष्ट्र प्रदेश में दयापूर्वक अवतीर्ण हुए हैं, चन्द्रमा जिनके मस्तक का आभूषण है, उन ज्योतिर्लिंग स्वरूप भगवान श्री सोमनाथ की शरण में मैं जाता हूँ।

श्रीशैलशृङ्गे विबुधातिसङ्गे तुलाद्रितुङ्गेऽपि मुदा वसन्तम् । तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम् ॥2

अर्थात - जो ऊँचाई के आदर्शभूत पर्वतों से भी बढ़कर ऊँचे श्रीशैल के शिखर पर, जहां देवताओं का अत्यन्त समागम होता रहता है, प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं तथा जो संसार-सागर से पार कराने हेतु पुल के समान हैं, उन एकमात्र प्रभु मल्लिकार्जुन को मैं प्रणाम करता हूँ।

अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम् । अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम् ॥3

अर्थात - संत जनों को मोक्ष देने के लिये जिन्होंने अवन्तिपुरी में अवतार धारण किया है, उन महाकाल नाम से विख्यात महादेव जी को मैं अकाल मृत्यु से बचने के लिये नमस्कार करता हूँ।

कावेरिकानर्मदयोः पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय । सदैवमान्धातृपुरे वसन्तमोङ्कारमीशं शिवमेकमीडे ॥4

अर्थात - जो सत्पुरुषों को संसार सागर से पार उतारने के लिये कावेरी और नर्मदा के पवित्र संगम के निकट मान्धाता के पुर में सदा निवास करते हैं, उन अद्वितीय कल्याणमय भगवान ओंकारेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ।

पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम् । सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि ॥5

अर्थात - जो पूर्वोत्तर दिशा में चिताभूमि (बैद्यनाथ-धाम) के भीतर सदा ही गिरिजा के साथ वास करते हैं, देवता और असुर जिनके चरण-कमलों की आराधना करते हैं, उन श्री वैद्यनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ।

याम्ये सदङ्गे नगरेऽतिरम्ये विभूषिताङ्गं विविधैश्च भोगैः । सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये ॥6

अर्थात - जो दक्षिण के अत्यंत रमणीय सदंग नगर में विविध भोगों से सम्पन्न होकर सुन्दर आभूषणों से भूषित हो रहे हैं, जो एकमात्र सद्भक्ति और मुक्ति को देने वाले हैं, उन प्रभु श्रीनागनाथ जी की मैं शरण में जाता हूँ।

महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः। सुरासुरैर्यक्ष महोरगाढ्यैः केदारमीशं शिवमेकमीडे ॥7

अर्थात - जो महागिरि हिमालय के पास केदारशृंग के तट पर सदा निवास करते हुए मुनीश्वरों द्वारा पूजित होते हैं तथा देवता, असुर, यक्ष और महान् सर्प आदि भी जिनकी पूजा करते हैं, उन एक कल्याणकारक भगवान केदारनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ।

सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरितीरपवित्रदेशे । यद्धर्शनात्पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्र्यम्बकमीशमीडे ॥8

अर्थात - जो गोदावरी तट के पवित्र देश में सह्यपर्वत के विमल शिखर पर वास करते हैं, जिनके दर्शन से तुरंत ही पातक नष्ट हो जाता है, उन श्रीत्र्यम्बकेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ।

सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यैः । श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि ॥9

अर्थात - जो भगवान श्री रामचन्द्रजी के द्वारा ताम्रपर्णी और सागर के संगम में अनेक बाणों द्वारा पुल बाँधकर स्थापित किये गये, उन श्री रामेश्वर को मैं नियम से प्रणाम करता हूँ।

यं डाकिनिशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च । सदैव भीमादिपदप्रसिद्दं तं शङ्करं भक्तहितं नमामि ॥10

अर्थात - जो डाकिनी और शाकिनी वृन्द में प्रेतों द्वारा सदैव सेवित होते हैं, उन भक्तहितकारी भगवान भीमशंकर को मैं प्रणाम करता हूँ।

सानन्दमानन्दवने वसन्तमानन्दकन्दं हतपापवृन्दम् । वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये ॥11

अर्थात - जो स्वयं आनन्दकन्द हैं और आनंदपूर्वक आनन्दवन (काशीक्षेत्र) में वास करते हैं, जो पाप समूह के नाश करने वाले हैं, उन अनाथों के नाथ काशीपति श्री विश्वनाथ की शरण में मैं जाता हूँ।

इलापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन् समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम् । वन्दे महोदारतरस्वभावं घृष्णेश्वराख्यं शरणम् प्रपद्ये ॥12

अर्थात - जो इलापुर के सुरम्यमन्दिर में विराजमान होकर समस्त जगत् के आराधनीय हो रहे हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही उदार है, उन घृष्णेश्वर नामक ज्योतिर्मय भगवान शिव की शरण में मैं जाता हूँ।

ज्योतिर्मयद्वादशलिङ्गकानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण । स्तोत्रं पठित्वा मनुजोऽतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च ॥13

अर्थात - यदि मनुष्य क्रमशः कहे गये इन द्वादश ज्योतिर्मय शिवलिंगों के स्तोत्र का भक्तिपूर्वक पाठ करें तो इनके दर्शन से होने वाला फल प्राप्त कर सकता है।

॥ इति द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् संपूर्णम् ॥

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