अच्युतस्याष्टकम् स्तोत्र (Achyutasyashtakam Stotra)
भगवान श्रीहरि को प्रसन्न करने के लिए "अच्युताष्टकम् स्तोत्र" का पाठ किया जाता है। इस स्त्रोत में भगवान विष्णु का वर्णन किया गया है। लेकिन स्त्रोत में विष्णु जी के अवतार श्री कृष्ण को प्रधानता दी गयी है। आदि शंकराचार्य द्वारा रचित अच्युताष्टकम एक 8-श्लोक स्तोत्र है जो भगवान कृष्ण को उनके कई नामों और रूपों की विशेषता का वर्णन करता है।
अच्युतस्याष्टकम् स्तोत्र का महत्व (Importance of Achyutasyashtakam Stotra)
अच्युतस्याष्टकम् स्तोत्र का पाठ जीवन में बहुत महत्व रखता है। अच्युत अष्टकम स्तोत्र का नियमित पाठ करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है। अच्युत विष्णु का दूसरा नाम है। अच्युत का अर्थ है "वह व्यक्ति जो अपनी अंतर्निहित प्रकृति और शक्तियों को कभी नहीं खोएगा"। शंकराचार्य द्वारा रचित यह मधुर स्तोत्र कानों के लिए भी बहुत सुखदायक है। इस स्रोत का नित्य पाठ करने से जीवन की प्रत्येक समस्या का समाधान मिल जाता है।
अच्युतस्याष्टकम् स्तोत्र पढ़ने के फायदे (Benefits of reading Achyutasyashtakam Stotra)
- अच्युत अष्टकम स्तोत्र जीवन से सभी बुराइयों को दूर करने में सहायक होता है। इसके नित्य पाठ से यह स्त्रोत आपको स्वस्थ, समृद्ध बनाता है।
- इसके नियमित पाठ से भक्त की सभी मनोकामना पूर्ण होती है।
- जो भी व्यक्ति इस स्त्रोत का श्रद्धा पूर्वक रोज पाठ करता है। भगवान विष्णु उससे प्रसन्न होते है और वह अपने भक्त की सदैव रक्षा करते हैं।
अच्युतस्याष्टकम् स्तोत्र का हिंदी अर्थ (Hindi meaning of Achyutasyashtakam Stotra)
अच्युतस्याष्टकम् स्तोत्र कृष्णदामोदरं वासुदेवं हरिम् । श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं जानकीनायकं रामचंद्रं भजे ॥1॥
अर्थात - अच्युत, केशव,राम -नारायण, कृष्ण, दामोदर, वासुदेव हरि श्रीधर, माधव, गोपिकावल्लभ और जानकी नायक रामचन्द्रजी को मैं भजता हूँ।
अच्युतं केशवं सत्यभामाधवं माधवं श्रीधरं राधिकाराधितम् । इन्दिरामन्दिरं चेतसा सुन्दरं देवकीनन्दनं नन्दजं सन्दधे ॥2॥
अर्थात - अच्युत, केशव, सत्यभामा पति, लक्ष्मीपति, श्रीधर, राधिका जी द्वारा आराधित, लक्ष्मीनिवास, परम सुन्दर, देवकीनन्दन, नन्दकुमार का मैं चित्त से ध्यान करता हूँ।
विष्णवे जिष्णवे शाङ्खिने चक्रिणे रुक्मिणिरागिणे जानकीजानये । बल्लवीवल्लभायार्चितायात्मने कंसविध्वंसिने वंशिने ते नमः ॥3॥
अर्थात - जो विभु हैं, विजयी हैं, शंख -चक्रधारी हैं, रुक्मणी जी के परम प्रेमी हैं, जानकीजी जिनकी धर्मपत्नी हैं और जो ब्रजांगनाओं के प्राणाधार हैं, उन परम पूज्य आत्मस्वरूप कंस विनाशक मुरलीधर को मैं नमस्कार करता हूँ।
कृष्ण गोविन्द हे राम नारायण श्रीपते वासुदेवाजित श्रीनिधे । अच्युतानन्त हे माधवाधोक्षज द्वारकानायक द्रौपदीरक्षक ॥4॥
अर्थात - हे कृष्ण! हे गोविन्द ! हे राम! हे नारायण! हे रामनाथ ! हे वासुदेव ! हे अजेय ! हे शोभाधाम ! हे अच्युत ! हे अनन्त ! हे माधव ! हे अधोक्षज ( इन्द्रियातीत )! हे द्वारिकानाथ ! हे द्रौपदी रक्षक ! ( मुझ पर कृपा कीजिये )
राक्षसक्षोभितः सीतया शोभितो दण्डकारण्यभूपुण्यताकारणः । लक्ष्मणेनान्वितो वानरौः सेवितोऽगस्तसम्पूजितो राघव पातु माम् ॥5॥
अर्थात - राक्षसों पर अति कुपित, श्री सीता जी से सुशोभित, दण्डकारण्य की भूमि की पवित्रता के कारण, श्री लक्ष्मण जी द्वारा अनुगत, वानरों से सेवित, श्री अगस्त्य जी से पूजित रघुवंशी श्री राम मेरी रक्षा करें।
धेनुकारिष्टकानिष्टकृद्द्वेषिहा केशिहा कंसहृद्वंशिकावादकः । पूतनाकोपकःसूरजाखेलनो बालगोपालकः पातु मां सर्वदा ॥6॥
अर्थात - धेनुक और अरिष्टासुर आदि का अनिष्ट करने वाले, शत्रुओं का ध्वंस करने वाले, केशी और कंस का वध करने वाले, बंसी को बजाने वाले, पूतना पर कोप करने वाले, यमुना तट बिहारी बालगोपाल मेरी सदैव रक्षा करें।
विद्युदुद्योतवत्प्रस्फुरद्वाससं प्रावृडम्भोदवत्प्रोल्लसद्विग्रहम् । वन्यया मालया शोभितोरःस्थलं लोहिताङ्घ्रिद्वयं वारिजाक्षं भजे ॥7॥
अर्थात - विद्युत्प्रकाश के सदृश जिनका पीताम्बर विभासित हो रहा है, वर्षाकालीन मेघों के समान जिनका अति शोभायमान शरीर है, जिनका वक्ष:स्थल वनमाला से विभूषित है तथा चरण युगल अरुण वर्ण हैं, उन कमलनयन श्रीहरि को मैं भजता हूँ।
कुञ्चितैः कुन्तलैर्भ्राजमानाननं रत्नमौलिं लसत्कुण्डलं गण्डयोः । हारकेयूरकं कङ्कणप्रोज्ज्वलं किङ्किणीमञ्जुलं श्यामलं तं भजे ॥8॥
अर्थात - जिनका मुख घुंघराली अलकों से सुशोभित हो रहा है, उज्जवल हार, बाजूबंद, कंकण और किंकिणी कलाप से सुशोभित उन मंजुल मूर्ति श्री श्यामसुंदर को मैं भजता हूँ।
अच्युतस्याष्टकं यः पठेदिष्टदं प्रेमतः प्रत्यहं पूरुषः सस्पृहम् । वृत्ततः सुन्दरं कर्तृविश्वम्भरस्तस्य वश्यो हरिर्जायते सत्वरम् ॥9॥
अर्थात - जो पुरूष इस अति सुन्दर छन्द वाले और अभीष्ट फलदायक अच्युताष्टकम को प्रेम और श्रद्धा से नित्य पढ़ता है। विश्वम्भर विश्वकर्ता श्रीहरि शीघ्र ही उसके वशीभूत हो जाते हैं, उसकी समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है।
॥ इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितमच्युताष्टकं सम्पूर्णम् ॥