महर्षि दधीचि कौन थे?
हिंदू धर्म में कई महान ऋषियों के बारे में बताया गया है। इन्हीं में से एक थे वैदिक ऋषि दधीचि। दधीचि जी ने अपना पूरा जीवन शिव भक्ति में लगा दिया। दानवीरों में उन्हें सबसे सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, उन्होंने संसार के कल्याण के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया था। इनके जन्म के संबंध में कई कथाएं सुनने को मिलती है। इनके पिता का नाम अथर्व व माता का नाम शांति था। दधीचि जी की हड्डियों से बने वज्र से इंद्रदेव ने वृत्रासुर का संहार किया था।
दधीचि जी ख्याति प्राप्त महर्षि थे। वे वेद शास्त्रों के ज्ञाता, परोपकारी और बहुत दयालु थे। उनके जीवन में किसी भी प्रकार का कोई अहंकार नहीं था। हमेशा वे दूसरों के हित के लिए कार्य करते थे। यही नहीं, जहां वे रहते थे, उस वन के पशु-पक्षी तक उनके व्यवहार से खुश रहते थे। इनके परोपकार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने असुरों के संहार के लिए अपनी अस्थियां तक दान कर दी थी।
महर्षि दधीचि का जीवन परिचय
पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार महर्षि दधीचि कठोर तपस्या में लीन थे। उनकी तपस्या का तेज इतना बढ़ गया था कि तीनों लोक आलोकित हो गए और इंद्रदेव का सिंहासन हिलने लगा। उन्हें लगा कि महर्षि कठोर तपस्या के बल पर उनका इंद्रपद छीनना चाहते हैं। इसलिए इंद्र ने महर्षि की तपस्या को भंग करने के लिए बेहद खूबसूरत अलम्बुषा अप्सरा के साथ कामदेव को भेजा। अलम्बुषा और कामदेव ने काफी प्रयास किया, लेकिन वे महर्षि की तपस्या को भंग न कर सके और वापस लौट गए।
कामदेव और अप्सरा के विफल होने के बाद इंद्रदेव ने महर्षि की हत्या का फैसला किया। देवसेना को लेकर इंद्र महर्षि दधीचि के आश्रम पहुंचे और तपस्या में महर्षि पर अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करना शुरू कर दिया, लेकिन कोई भी अस्त्र-शस्त्र महर्षि की तपस्या के अभेद्य दुर्ग को भेद न सके। इंद्र के अस्त्र-शस्त्र भी उनके सामने कम पड़ गए। आखिरकार हार मानकर देवराज इंद्र सेना सहित स्वर्ग लौट आए।
कहते हैं कि एक इंद्र की सभा में देवगुरु बृहस्पति आए, लेकिन अहंकारवश इन्द्र गुरु बृहस्पति के सम्मान में खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर कहीं दूसरे स्थान पर चले गए। जिसके बाद देवताओं ने विश्वरूप को अपना पुरोहित बना लिया, लेकिन विश्वरूप देवताओं से छिपकर असुरों को भी यज्ञ-भाग देने लगा। जिसका पता चलने पर इंद्रदेव ने क्रोध में उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।
विश्वरूप त्वष्टा ऋषि का पुत्र था। पुत्र को खोने के बाद क्रोधित ऋषि ने इन्द्र को मारने के उद्देश्य से महाबली वृत्रासुर को उत्पन्न किया। वृत्रासुर के भय से इन्द्र को अपना सिंहासन छोड़ना पड़ा। सभी देवता ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी ने उन्हें बताया कि वृत्रासुर का अंत सिर्फ महर्षि दधीचि के अस्थियों से बने अस्त्र से ही हो सकता है। ब्रह्मा जी की सलाह पर इंद्र समेत सभी देवता महर्षि दधीचि के पास गए। इंद्रदेव ने महर्षि से प्रार्थना करते हुए कहा- “प्रभु, त्रैलोक्य की मंगल कामना के लिए आप अपनी हड्डियां हमें दान दे दीजिये। “
इंद्र की बात सुन महर्षि ने कहा, देवराज! अपना शरीर सबको प्रिय होता है, लेकिन लोकहित के लिए मैं तुम्हें अपना शरीर प्रदान करता हूं। जिसके बाद महर्षि ने योग विद्या से अपना शरीर त्याग दिया और उनकी हड्डियों से वज्र का निर्माण हुआ, जिससे वृत्रासुर मारा गया। महर्षि के देह त्याग के बाद उनकी पत्नी गभस्तिनी सती हो गईं। हालांकि, गभस्तिनी के सती होने से पहले देवों ने उनके गर्भ में पल रहे बच्चे को पीपल को सौंप दिया था। इसी कारण महर्षि के पुत्र पिप्पलाद नाम से प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार एक महान परोपकारी महर्षि दधीचि के त्याग से देवराज इंद्र बच गए और तीनों लोक सुखी हो गए। अपने अपकारी शत्रु के भी हित के लिए अपना सब कुछ त्याग करने वाले महर्षि दधीचि जैसा उदाहरण संसार में मिलना कठिन है।
महर्षि दधीचि के महत्वपूर्ण योगदान
महर्षि दधीचि जी का सबसे बड़ा योगदान लोक कल्याण के लिए अपने देह का त्याग करना माना जाता है। उनकी हड्डियों से बने अस्त्र वज्र से ही इंद्रदेव ने वृत्रासुर का वध किया था। इसके अतिरिक्त महर्षि हमेशा से ही दूसरों के हित के लिए तत्पर रहते थे।
महर्षि दधीचि से जुड़े रहस्य
- महर्षि के पुत्र पिप्पलाद के जन्म से पहले ही उनकी मां गभस्तिनी सती हो गईं थीं।
- कुछ लोग उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में स्थित मिश्रिख तीर्थ को उनकी तपोभूमि मानते हैं।
- कहा जाता है कि कामधेनु गाय ने चाटकर महर्षि के शरीर से मांस को उतारा था, जिसके बाद अस्थियों का ढांचा बचा था। इसी से वज्र का निर्माण किया गया।